मैं अगर वो हूँ जो होना चाहिए
मैं ही मैं हूँ फिर मुझे क्या चाहिए
ग़र्क़-ए-ख़ुम होना मयस्सर हो तो बस
चाहिए साग़र न मीना चाहिए
मुनहसिर मरने पे है फ़तह-ओ-शिकस्त
खेल मर्दाना है खेला चाहिए
बे-तकल्लुफ़ फिर तो खेवा पार है
मौजज़न क़तरा में दरिया चाहिए
तेज़ ग़ैरों पर न कर तेग़-ओ-तबर
आप अपने से मुबर्रा चाहिए
हो दम-ए-अर्ज़-ए-तजल्ली पाश पाश
सीना मिस्ल-ए-तूर-ए-सीना चाहिए
हुस्न की क्या इब्तिदा क्या इंतिहा
शेफ़्ता भी बे-सर-ओ-पा चाहिए
पारसा बन गर नहीं रिंदों में बार
कुछ तो बेकारी में करना चाहिए
कुफ़्र है साक़ी पे ख़िस्सत का गुमाँ
तिश्ना सरगर्म-ए-तक़ाज़ा चाहिए

ग़ज़ल
मैं अगर वो हूँ जो होना चाहिए
इस्माइल मेरठी