मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
पानी देने से निहाल-ए-क़द-ए-बाला बढ़ जाए
जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
दो जहाँ से भी अगर वुसअत-ए-सहरा बढ़ जाए
क़ुमरियाँ देख के गुलज़ार में धोका खाएँ
तौक़ मिन्नत का जो ऐ सर्व-ए-तमन्ना बढ़ जाए
हाथ पर हाथ अगर मार के दौड़ूँ बाहम
राह-ए-उल्फ़त में क़दम क़ैस से मेरा बढ़ जाए
दाग़ पर दाग़ से ऐ 'बर्क़' मुझे राहत है
दर्द कम हो तो शब-ए-हिज्र में ईज़ा बढ़ जाए
ग़ज़ल
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़