मय-ए-फ़राग़त का आख़िरी दौर चल रहा था
सुबू किनारे विसाल का चाँद ढल रहा था
वो साज़ की लय कि नाचता था लहू रगों में
वो हिद्दत-ए-मय कि लम्हा लम्हा पिघल रहा था
फ़ज़ा में लहरा रहे थे अफ़्सुर्दगी के साए
अजब घड़ी थी कि वक़्त भी हाथ मल रहा था
सकूँ से महरूम थीं तरब-गाह की नशिस्तें
कि इक नया इज़्तिराब जिस्मों में चल रहा था
निगाहें दावत की मेज़ से दूर खो गई थीं
तमाम ज़ेहनों में एक साया सा चल रहा था
हवा-ए-ग़ुर्बत की लहर अन्फ़ास में रवाँ थी
नए सफ़र का चराग़ सीनों में जल रहा था
भड़क रही थी दिलों में हसरत की प्यास लेकिन
वहीं नई आरज़ू का चश्मा उबल रहा था
बदन पे तारी था ख़ौफ़ गहरे समुंदरों का
रगों में शौक़-ए-शनावरी भी मचल रहा था
न जाने कैसा था इंक़लाब-ए-सहर का आलम
बदल रही थी नज़र कि मंज़र बदल रहा था

ग़ज़ल
मय-ए-फ़राग़त का आख़िरी दौर चल रहा था
शब्बीर शाहिद