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महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया | शाही शायरी
mahshar mein pas kyun dam-e-fariyaad aa gaya

ग़ज़ल

महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
रहम उस ने कब किया था कि अब याद आ गया

उलझा है पाँव यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
लो आप अपने दाम में सय्याद आ गया

नाकामियों में तुम ने जो तश्बीह मुझ से दी
शीरीं को दर्द-ए-तल्ख़ी-ए-फ़रहाद आ गया

हम चारागर को यूँ ही पहनाएँगे बेड़ियाँ
क़ाबू में अपने गर वो परी-ज़ाद आ गया

दिल को क़लक़ है तर्क-ए-मोहब्बत के बाद भी
अब आसमाँ को शिकवा-ए-बेदाद आ गया

वो बद-गुमाँ हुआ जो कहीं शेर में मिरे
ज़िक्र-ए-बुतान-ए-ख़ल्ख़-ओ-नौशाद आ गया

थे बे-गुनाह जुरअत-ए-पा-बोस थी ज़रूर
क्या करते वहम-ए-ख़जलत-ए-जल्लाद आ गया

जो हो चुका यक़ीं कि नहीं ताक़त-ए-विसाल
दम में हमारे वो सितम-ईजाद आ गया

ज़िक्र-ए-शराब-ओ-हूर कलाम-ए-ख़ुदा में देख
'मोमिन' मैं क्या कहूँ मुझे क्या याद आ गया