महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
याँ वर्ना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का
रंग-ए-शिकस्ता सुब्ह-ए-बहार-ए-नज़ारा है
ये वक़्त है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-नाज़ का
तू और सू-ए-ग़ैर नज़र-हा-ए-तेज़ तेज़
मैं और दुख तिरी मिज़ा-हा-ए-दराज़ का
सर्फ़ा है ज़ब्त-ए-आह में मेरा वगरना में
तोमा हूँ एक ही नफ़स-ए-जाँ-गुदाज़ का
हैं बस-कि जोश-ए-बादा से शीशे उछल रहे
हर गोशा-ए-बिसात है सर शीशा-बाज़ का
काविश का दिल करे है तक़ाज़ा कि है हुनूज़
नाख़ुन पे क़र्ज़ इस गिरह-ए-नीम-बाज़ का
ताराज-ए-काविश-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हुआ 'असद'
सीना कि था दफ़ीना गुहर-हा-ए-राज़ का
ग़ज़ल
महरम नहीं है तू ही नवा-हा-ए-राज़ का
मिर्ज़ा ग़ालिब