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महफ़िल में किसी की हम ने उन्हें इक बार ज़रा देखा ही तो है | शाही शायरी
mahfil mein kisi ki humne unhen ek bar zara dekha hi to hai

ग़ज़ल

महफ़िल में किसी की हम ने उन्हें इक बार ज़रा देखा ही तो है

कुमार पाशी

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महफ़िल में किसी की हम ने उन्हें इक बार ज़रा देखा ही तो है
यूँ नाम पे उन के धड़के है दिल गोया उन से रिश्ता ही तो है

यादों के सुहाने मौसम में उस गर्म-बदन की आँच लिए
चल निकले हैं हम यूँ ख़ुश ख़ुश है जैसे वो इधर रहता ही तो है

हम कुछ भी कहें लेकिन उन से जो एक तअ'ल्लुक़ था न रहा
रिश्ते की हक़ीक़त क्या मा'नी बस टूट गया धागा ही तो है

क्या क्या न अजब लम्हे गुज़रे तन्हाई-ए-शब में इस दिल पर
ख़ुश-फ़हमी कि सब कह डालूँगा जैसे वो मिरी सुनता ही तो है

बे-सम्त चले तो हैं लेकिन हम जानते हैं अंजाम-ए-सफ़र
बेकार है जी को कल़्पाना दो-चार घड़ी चलना ही तो है

आप अपने से बाहर आ कर भी सब देख लिया सब जान लिया
आलम है ये सारा भेद भरा पर्दे से परे पर्दा ही तो है

तन्हाई में शाम-ए-फ़ुर्क़त की ये सोच के ख़ुश है जी अपना
आएगा मना लेंगे उस को जैसे वो इधर आता ही तो है

हर सिंफ़-ए-सुख़न को 'पाशी'-जी इक तर्ज़ नई दी है हम ने
हर इक से अलग हर इक से जुदा हर शे'र में अक्स अपना ही तो है