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महाज़-ए-ज़िंदगी के हर मुहारिब से लड़ो साहब | शाही शायरी
mahaz-e-zindagi ke har muhaarib se laDo sahab

ग़ज़ल

महाज़-ए-ज़िंदगी के हर मुहारिब से लड़ो साहब

सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद

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महाज़-ए-ज़िंदगी के हर मुहारिब से लड़ो साहब
कभी आगे बढ़ो साहब कभी पीछे हटो साहब

कभी ख़ुद भी तो समझो अक़्ल-आराई की तलक़ीनें
कुछ अपने साहिबों से तर्ज़-ए-इस्तिबसार लो साहब

कहाँ तक हम बताते जाएँ कब क्या कैसे करना है
कुछ अपने आप भी अच्छा बुरा समझा करो साहब

तवक़्क़ुफ़ भी सफ़र का रुक्न है अब ये भी समझाएँ
कहाँ हम ने कहा तुम से कि बस चलते रहो साहब

पए-इस्लाह-ए-हिम्मत और बसीरत दोनों लाज़िम हैं
कि ख़ुद क़ाबिल बनू इतने या हम पर छोड़ दो साहब

ज़माने के तमाशों में उलझना बे-वक़ूफ़ी है
नज़र भर कर न देखो देख कर आगे बढ़ो साहब

दोबारा खो दिया है तुम ने ख़ुद ज़ौक़-ए-सलीम अपना
दोबारा ग़ौर फिर अपने ही माज़ी पर करो साहब

हमेशा इम्तिसाल-ए-अम्र ख़ालिक़ का इरादा हो
ख़याल-ए-इत्तिबा-ए-अम्र-ए-नफ़सी, दूर हो साहब

अरब होते तो मख़रज और तलफ़्फ़ुज़ से समझ जाते
मगर उर्दू में ऐसा है पढ़ो साहब लिखो साहब

वो जब भी दीन में 'तमजीद' आज़ादी की बातें हों
ये लाज़िम है कि ला-इकराह हो इरशाद हो साहब