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मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था | शाही शायरी
maghz-e-bahaar is baras us bin bacha na tha

ग़ज़ल

मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था

वली उज़लत

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मग़्ज़-ए-बहार इस बरस उस बिन बचा न था
चीन-ए-जबीं बिन एक गुल अब की हँसा न था

जब लग में सुब्ह हुस्न-ए-बुतों से मिला न था
दिल होए गुल सा हात से मेरे गया न था

क्या की वफ़ा कि मौज-ए-गुहर सा है सर से बंद
ख़ंजर जुज़ एक दम का मिरा आश्ना न था

जा कर फ़ना के उस तरफ़ आसूदा मैं हुआ
मैं आलम-ए-अदम में भी देखा मज़ा न था

इस यार-ए-कारवानी के वक़्त-ए-विदाअ' हाए
बे-नाला एक अश्क मिरा जूँ दरा न था

होते ही जल्वा-गर तिरे ऐ आफ़ताब-रू
सीने में जैसे शबनम-ए-गुल दिल रहा न था

मुँह मोड़ बुत-कदा से हरम को चला है शैख़
'उज़लत' मगर है का'बे ही में यहाँ ख़ुदा न था