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माज़ी के जब ज़ख़्म उभरने लगते हैं | शाही शायरी
mazi ke jab zaKHm ubharne lagte hain

ग़ज़ल

माज़ी के जब ज़ख़्म उभरने लगते हैं

अमित शर्मा मीत

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माज़ी के जब ज़ख़्म उभरने लगते हैं
आँखों से जज़्बात बिखरने लगते हैं

ज़ेहन-ओ-दिल में उस की यादें आते ही
लफ़्ज़ शरारत ख़ुद ही करने लगते हैं

कर के याद तिरे माथे का बोसा हम
उँगली अब होंठों पे धरने लगते हैं

तेरी मैं तस्वीर कभी जो देखूँ तो
मेरे दिन और रात ठहरने लगते हैं

बिन तेरे साँसों की हालत मत पूछो
घुट घुट कर रोज़ाना मरने लगते हैं

हम पर अँधेरे कुछ हावी हैं ऐसे तो
हम ख़ुद के साए से डरने लगते हैं

'मीत' कहानी उल्फ़त की जब पढ़ता हूँ
आँखों से किरदार गुज़रने लगते हैं