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मातम बहुत रहा मुझे अश्क-ए-चकीदा का | शाही शायरी
matam bahut raha mujhe ashk-e-chakida ka

ग़ज़ल

मातम बहुत रहा मुझे अश्क-ए-चकीदा का

नसीम देहलवी

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मातम बहुत रहा मुझे अश्क-ए-चकीदा का
आख़िर को पास आ ही गया नूर दीदा का

नाम-ए-फ़िराक़ फिर न लिया मैं ने उम्र-भर
था ज़ाइक़ा ज़बाँ पे अज़ाब-ए-चशीदा का

अब वो मज़ा नहीं लब-ए-शीरीं के क़ंद में
चूसा हुआ है ये किसी ख़िदमत-रसीदा का

ऐ चर्ख़-ए-पीर-ज़ोर जवानी से दर-गुज़र
अब पास चाहिए तुझे पुश्त-ए-ख़मीदा का

अबरू में ख़म जबीं में शिकन आँख में ग़ज़ब
क्या मुद्दआ' है क़ातिल-ए-ख़ंजर-कशीदा का

दौलत ग़रज़ न थी जो दुआ से हुई हुसूल
था और मुद्दआ' मिरे दस्त-ए-कशीदा का

ऐ सकिनान-ए-चर्ख़-ए-मुअल्ला बचो बचो
तूफ़ाँ हुआ बुलंद मिरे आब-दीदा का

वो ना-तवानियाँ हैं कि जिस्म-ए-ज़ईफ़ पर
जामा है अंकबूत के दाम-ए-तनीदा का

बे-दीद दीद में नहीं आते किसी तरह
ग़म आशियाँ है ताइर-ए-रंग-परीदा का

उड़ते हैं होश कोई भला किस तरह सुने
अफ़्साना तेरे वहशी-ए-अज़-ख़ुद-रमीदा का

ओ गुल ख़याल है अरक़-ए-जिस्म का तिरे
शीशा है दिल हमारा गुलाब-ए-चकीदा का

याद-ए-निगाह-ए-मस्त से है दिल को इंतिशार
पैमाना है ख़राब शराब-ए-चकीदा का

क़ातिल ख़ुदा से डर हवस-ए-ज़ब्ह ता-कुजा
नाला न सुन किसी के गुलू-ए-बुरीदा का

मस्ती के वलवलों का जवानी में लुत्फ़ है
पीरी में ध्यान चाहिए क़द्द-ए--ख़मीदा का

जल्वे दिखा रहा है ये फ़र्श-ए-ज़मुर्रदीं
सब्ज़ा मज़ार पर है गियाह-ए-दमीदा का

चढ़ती है रोज़ चादर-ए-गुल जलते हैं चराग़
ये ढेर है ज़रूर किसी बरगुज़ीदा का

बालों को ऐ 'नसीम' रंगोगे ख़िज़ाब से
सक को असा बनाओगे पुश्त-ए-ख़मीदा का