मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
दिल आप निशाना बनता है वो तीर चलाना क्या जाने
कह जाती है क्या वो चीन-ए-जबीं ये आज समझ सकते हैं कहीं
कुछ सीखा हुआ तो काम नहीं दिल नाज़ उठाना क्या जाने
चटकी जो कली कोयल कूकी उल्फ़त की कहानी ख़त्म हुई
क्या किस ने कही क्या किस ने सुनी ये बता ज़माना क्या जाने
था दैर-ओ-हरम में क्या रखा जिस सम्त गया टकरा के फिरा
किस पर्दे के पीछे है शोअ'ला अंधा परवाना क्या जाने
ये ज़ोरा-ज़ोरी इश्क़ की थी फ़ितरत ही जिस ने बदल डाली
जलता हुआ दिल हो कर पानी आँसू बन जाना क्या जाने
सज्दों से पड़ा पत्थर में गढ़ा लेकिन न मिटा माथे का लिखा
करने को ग़रीब ने क्या न किया तक़दीर बनाना क्या जाने
आँखों की अंधी ख़ुद-ग़र्ज़ी काहे को समझने देगी कभी
जो नींद उड़ा दे रातों की वो ख़्वाब में आना क्या जाने
पत्थर की लकीर है नक़्श-ए-वफ़ा आईना न जानो तलवों का
लहराया करे रंगीं-शोला दिल पलटे खाना क्या जाने
जिस नाले से दुनिया बेकल है वो जलते दिल की मशअल है
जो पहला लूका ख़ुद न सहे वो आग लगाना क्या जाने
हम 'आरज़ू' आए बैठे हैं और वो शरमाए बैठे हैं
मुश्ताक़-नज़र गुस्ताख़ नहीं पर्दा सरकाना क्या जाने
ग़ज़ल
मासूम नज़र का भोला-पन ललचा के लुभाना क्या जाने
आरज़ू लखनवी