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माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं | शाही शायरी
mana ki musht-e-KHak se baDh kar nahin hun main

ग़ज़ल

माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं

मुज़फ़्फ़र वारसी

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माना कि मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर नहीं हूँ मैं
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं

इंसान हूँ धड़कते हुए दिल पे हाथ रख
यूँ डूब कर न देख समुंदर नहीं हूँ मैं

चेहरे पे मल रहा हूँ सियाही नसीब की
आईना हाथ में है सिकंदर नहीं हूँ मैं

वो लहर हूँ जो प्यास बुझाए ज़मीन की
चमके जो आसमाँ पे वो पत्थर नहीं हूँ मैं

'ग़ालिब' तिरी ज़मीन में लिक्खी तो है ग़ज़ल
तेरे क़द-ए-सुखन के बराबर नहीं हूँ मैं

लफ़्ज़ों ने पी लिया है 'मुज़फ़्फ़र' मिरा लहू
हंगामा-ए-सदा हूँ सुख़न-वर नहीं हूँ मैं