लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
यूँ न मानूँ मैं मगर साग़र तो समझाता रहा
ताक़ से मीना उतारा पाँव में लग़्ज़िश हुई
की न साक़ी से बराबर आँख शरमाता रहा
मुझ सा हो मज़बूत दिल तब मय-कशी का नाम ले
मोहतसिब देखा किया मजबूर झल्लाता रहा
क्या करूँ और किस तरह उस बे-क़रारी का इलाज
यार के कूचे में भी तो दिल का बहलाता रहा
नौजवाँ क़ातिल को अच्छी दिल-लगी हाथ आ गई
जब तलक कुछ दम रहा बिस्मिल को ठुकराता रहा
'शाद' वक़्त-ए-नज़अ' था ख़ामोश लेकिन देर तक
नाम रह रह कर किसी का ज़ेर-ए-लब आता रहा
ग़ज़ल
लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
शाद अज़ीमाबादी