लोगों की मलामत भी है ख़ुद दर्द-सरी भी
किस काम की ये अपनी वसीअ-उन-नज़री भी
क्या जानिए क्यूँ सुस्त थी कल ज़ेहन की रफ़्तार
मुमकिन हुइ तारों से मिरी हम-सफ़री भी
रातों को कली बन के चटकता था तिरा जिस्म
धोके में चली आई नसीम-ए-सहरी भी
ख़ुद अपने शब-ओ-रोज़ गुज़र जाएँगे लेकिन
शामिल है मिरे ग़म में तिरी दर-ब-दरी भी
फ़ुर्क़त के शब-ओ-रोज़ में क्या कुछ नहीं होता
क़ुदरत पे मलामत भी दुआ-ए-सहरी भी
इक फ़र्द की उल्फ़त तो बड़ी कम-नज़री है
है किस में मगर अहलियत-ए-कम-नज़री भी
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ग़ज़ल
लोगों की मलामत भी है ख़ुद दर्द-सरी भी
मुस्तफ़ा ज़ैदी