लोग जिन को आज तक बार-ए-गराँ समझा किए
हम उन्हीं लम्हों को उम्र-ए-जावेदाँ समझा किए
मौत को हम ज़िंदगी की तर्जुमाँ समझा किए
क़तरा-ए-दरिया को बहर-ए-बे-कराँ समझा किए
गो हक़ीक़त ही हक़ीक़त थी सरापा हम मगर
ज़िंदगी को दास्ताँ ही दास्ताँ समझा किए
हसरत-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ ख़्वाब बन कर रह गई
वो क़फ़स निकला जिसे हम आशियाँ समझा किए
हाँ वही इक शख़्स निकला बे-मुरव्वत बेवफ़ा
हम जिसे जान-ए-तमन्ना जान-ए-जाँ समझा किए
हो गए इक बार फिर हम ख़ुद-फ़रेबी के शिकार
वो ज़मीं निकली जिसे हम आसमाँ समझा किए
हाए वो निकलीं मुनज़्ज़म रहज़नों की टोलियाँ
आज तक जिन को 'कँवल' हम कारवाँ समझा किए
ग़ज़ल
लोग जिन को आज तक बार-ए-गराँ समझा किए
डी. राज कँवल