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लोग जिन को आज तक बार-ए-गराँ समझा किए | शाही शायरी
log jinko aaj tak bar-e-garan samjha kiye

ग़ज़ल

लोग जिन को आज तक बार-ए-गराँ समझा किए

डी. राज कँवल

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लोग जिन को आज तक बार-ए-गराँ समझा किए
हम उन्हीं लम्हों को उम्र-ए-जावेदाँ समझा किए

मौत को हम ज़िंदगी की तर्जुमाँ समझा किए
क़तरा-ए-दरिया को बहर-ए-बे-कराँ समझा किए

गो हक़ीक़त ही हक़ीक़त थी सरापा हम मगर
ज़िंदगी को दास्ताँ ही दास्ताँ समझा किए

हसरत-ए-सैर-ए-गुलिस्ताँ ख़्वाब बन कर रह गई
वो क़फ़स निकला जिसे हम आशियाँ समझा किए

हाँ वही इक शख़्स निकला बे-मुरव्वत बेवफ़ा
हम जिसे जान-ए-तमन्ना जान-ए-जाँ समझा किए

हो गए इक बार फिर हम ख़ुद-फ़रेबी के शिकार
वो ज़मीं निकली जिसे हम आसमाँ समझा किए

हाए वो निकलीं मुनज़्ज़म रहज़नों की टोलियाँ
आज तक जिन को 'कँवल' हम कारवाँ समझा किए