लोग जब जश्न बहारों का मनाने निकले
हम बयाबानों में तब ख़ाक उड़ाने निकले
खुल गया दफ़्तर-ए-सद-रंग मुलाक़ातों का
हुस्न के ज़िक्र पे क्या क्या न फ़साने निकले
इश्क़ का रोग कि दोनों से छुपाया न गया
हम थे सौदाई तो कुछ वो भी दिवाने निकले
जब खिले फूल चमन में तो तिरी याद आई
चंद आँसू भी मसर्रत के बहाने निकले
शहर वाले सभी बे-चेहरा हुए हैं 'पाशी'
हम ये किन लोगों को आईना दिखाने निकले
ग़ज़ल
लोग जब जश्न बहारों का मनाने निकले
कुमार पाशी

