EN اردو
लिक्खेंगे न इस हार के अस्बाब कहाँ तक | शाही शायरी
likkhenge na is haar ke asbab kahan tak

ग़ज़ल

लिक्खेंगे न इस हार के अस्बाब कहाँ तक

इनाम-उल-हक़ जावेद

;

लिक्खेंगे न इस हार के अस्बाब कहाँ तक
रक्खेंगे मिरा दिल मिरे अहबाब कहाँ तक

गिरती हुई दीवार के साए में पड़ा हूँ
शल होंगे न आख़िर मिरे आसाब कहाँ तक

हसरत है कि ताबीर के साहिल पे भी उतरूँ
देखूँगा यूँही रोज़ नए ख़्वाब कहाँ तक

आवाज़ से आरी हैं जो टूटी हुई तारें
काम आएगी इस हाल में मिज़राब कहाँ तक

वो अब्र का टुकड़ा है मगर देखना ये है
होती हैं निगाहें मिरी सैराब कहाँ तक

कुछ दूर किनारे के मनाज़िर तो हैं लेकिन
जाएगा ये दरिया यूँही पायाब कहाँ तक

डरता हूँ कहीं ज़ब्त का पल बीत न जाए
शोलों को छुपाऊँगा तह-ए-आब कहाँ तक