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लिबास गर्द का और जिस्म नूर का निकला | शाही शायरी
libas gard ka aur jism nur ka nikla

ग़ज़ल

लिबास गर्द का और जिस्म नूर का निकला

अक़ील शादाब

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लिबास गर्द का और जिस्म नूर का निकला
तमाम वहम ही अपने शुऊर का निकला

जो अपने आप से बढ़ कर हमारा अपना था
उसे क़रीब से देखा तो दूर का निकला

बदन के पार उतरते ही खुल गईं आँखें
सुराग़ तेरे सरापा से तूर का निकला

सभी निशानियाँ उस शख़्स पर खरी उतरीं
जो भूल कर भी कभी ज़िक्र हूर का निकला

उठे जो हाथ मिरी संगसारियों के लिए
हर एक दस्त-ए-इनायत हुज़ूर का निकला

न-जाने भूल गया कौन कब कहाँ लिख कर
मिटा सा नक़्श मैं बैनस्सुतूर का निकला

जो दाना दाना फ़ना फ़स्ल-ए-आरज़ू का हुआ
तमाम फ़ित्ना मलख़ और मोर का निकला

गिरफ़्त-ए-फ़न से न आज़ाद हो सका 'शादाब'
ख़याल-ए-ताज़ा करिश्मा बहूर का निकला