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लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब | शाही शायरी
lekhe ki yan bahi na zar-o-mal ki kitab

ग़ज़ल

लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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लेखे की याँ बही न ज़र-ओ-माल की किताब
है अपने हक़ में वा-शुद-ए-दिल फ़ाल की किताब

बुलबुल का ज़ेर-ए-बाल न बेजा समझ तू है
उस के मुतालेए में पर-ओ-बाल की किताब

मज़कूर ज़ुल्फ़ है मिरे दीवाँ में सर-ब-सर
हर सफ़हा उस का क्यूँ न बने जाल की किताब

फ़ुर्सत मिली तो ख़ामा-ए-बाल-ए-तदर्व से
आशिक़ तिरे लिखेंगे तिरी चाल की किताब

जुज़ यस्फ़िकुद्दिमाअ की आया न वो पढ़े
क़ुरआँ हो गरचे उस बुत-ए-क़त्ताल की किताब

शक्ल-ए-उरूस छट न ख़ुश आवे मुझे कभी
रख दें जो मेरे सामने अश्काल की किताब

देखे जो ग़ौर से कोई दीवाँ मिरे तो हाँ
हर बैत है ज़माने के अहवाल की किताब

शर्म-ए-गुनह से आब हुआ गरचे मैं वले
धोई गई न नामा-ए-आमाल की किताब

पाया न साद-ओ-नहस से कोई वरक़ तही
तारों की मैं ने ख़ूब जो ग़िर्बाल की किताब

किस तरह रोज़-ए-हश्र वो होवेंगे सुर्ख़-रू
देखा किए हैं याँ जो ख़त-ओ-ख़ाल की किताब

इस दहर में बुलंदी-ए-अज़हान-ए-कुंद से
मैं गरचे जानता था इन्हें फ़ाल की किताब

हर जिल्द 'मुसहफ़ी' तिरे दीवान की वले
नुक़्तों से शक के बन गई रुम्माल की किताब