ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले
हम तिरे आने से पहले मर चले
कूचा-ए-जानाँ में जाना है ज़रूर
चाहे आरा सर पे या ख़ंजर चले
बस ये है कू-ए-बुताँ की सरगुज़िश्त
सर पे मेरे सैकड़ों पत्थर चले
कू-ए-जानाँ का न पाया कुछ निशान
ख़िज़्र के हम-राह हम दिन भर चले
पाई तेरे दर पे आ कर ज़िंदगी
ओ मसीहा खा के हम ठोकर चले
देखिए देखेंगे क्या रोज़-ए-जज़ा
याँ बशर आए वहाँ बा-शर चले
हो ख़िज़ाँ क्यूँ-कर न गुलशन की बहार
जब यहाँ बाद-ए-सबा सर-सर चले
बज़्म से जाते हो दुज़्दीदा-नज़र
नीम-बिस्मिल कर चले क्या कर चले
क़ौल-ए-वाइ'ज़ ने न कुछ तासीर की
कुश्ता-ए-काकुल पे कब मंतर चले
ख़ूँ तिरी तिरछी निगाहों ने किया
लाख ख़ंजर एक कुश्ते पर चले
फ़र्श पर है यूँ ख़िरामाँ रश्क-ए-माह
अर्श पर जैसे कोई अख़्तर चले
कब हुई सौदा-ए-मिज़्गाँ से शिफ़ा
नश्तरों पर सैकड़ों नश्तर चले
ग़ज़ल
ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले
मर्दान अली खां राना