EN اردو
ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले | शाही शायरी
le qaza ehsan tujh par kar chale

ग़ज़ल

ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले

मर्दान अली खां राना

;

ले क़ज़ा एहसान तुझ पर कर चले
हम तिरे आने से पहले मर चले

कूचा-ए-जानाँ में जाना है ज़रूर
चाहे आरा सर पे या ख़ंजर चले

बस ये है कू-ए-बुताँ की सरगुज़िश्त
सर पे मेरे सैकड़ों पत्थर चले

कू-ए-जानाँ का न पाया कुछ निशान
ख़िज़्र के हम-राह हम दिन भर चले

पाई तेरे दर पे आ कर ज़िंदगी
ओ मसीहा खा के हम ठोकर चले

देखिए देखेंगे क्या रोज़-ए-जज़ा
याँ बशर आए वहाँ बा-शर चले

हो ख़िज़ाँ क्यूँ-कर न गुलशन की बहार
जब यहाँ बाद-ए-सबा सर-सर चले

बज़्म से जाते हो दुज़्दीदा-नज़र
नीम-बिस्मिल कर चले क्या कर चले

क़ौल-ए-वाइ'ज़ ने न कुछ तासीर की
कुश्ता-ए-काकुल पे कब मंतर चले

ख़ूँ तिरी तिरछी निगाहों ने किया
लाख ख़ंजर एक कुश्ते पर चले

फ़र्श पर है यूँ ख़िरामाँ रश्क-ए-माह
अर्श पर जैसे कोई अख़्तर चले

कब हुई सौदा-ए-मिज़्गाँ से शिफ़ा
नश्तरों पर सैकड़ों नश्तर चले