ले चुको दिल जो निगह को तो ये दुश्वार नहीं
लेक तुम देखते फिरते हो ख़रीदार नहीं
गो कि मुशरिफ़-ब-हलाकत हूँ मैं इस बार पे शोख़
तो अयादत को गर आवे तो कुछ आज़ार नहीं
तंग तो हम को तू ऐ जैब करे है लेकिन
उठ गया हाथ गर अपना तो फिर इक तार नहीं
गो सुबुक मुझ को ज़माने ने किया है लेकिन
ये भी है शुक्र किसी दिल का तो मैं बार नहीं
मजलिस-ए-मय से मुशाबह है ख़राबात-ए-जहाँ
जान कर याँ जो न हो मस्त सो होश्यार नहीं
हर बद ओ नेक जहाँ अपनी जगह है मतलूब
कौन सा उज़्व बदन में है कि दरकार नहीं
मय की तौबा को तो मुद्दत हुई 'क़ाएम' लेकिन
बे-तलब अब भी जो मिल जाए तो इंकार नहीं
ग़ज़ल
ले चुको दिल जो निगह को तो ये दुश्वार नहीं
क़ाएम चाँदपुरी