लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
जगमगाएँगे दर-ओ-बाम यही लगता है
ज़ीस्त की राह में तन्हा जो भटकती हूँ मैं
ये वफ़ाओं का है इनआम यही लगता है
एक मुद्दत से मुसलसल हूँ सफ़र में लेकिन
मंज़िल शौक़ है दो-गाम यही लगता है
इक कली बर सर-ए-पैकार ख़िज़ाओं से है
ये नहीं वाक़िफ़-ए-अंजाम यही लगता है
मेरे आने की ख़बर सुन के वो दौड़ा आता
उस को पहुँचा नहीं पैग़ाम यही लगता है
मुझ को भी कर देगा रुस्वा वो ज़माने भर में
ख़ुद भी हो जाएगा बदनाम यही लगता है
भूलना उस को है आसान 'शबाना' लेकिन
मुझ से होगा नहीं ये काम यही लगता है
ग़ज़ल
लौट आएगा किसी शाम यही लगता है
शबाना यूसुफ़