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लौ दे उठा चराग़-ए-तमन्ना बुझा हुआ | शाही शायरी
lau de uTha charagh-e-tamanna bujha hua

ग़ज़ल

लौ दे उठा चराग़-ए-तमन्ना बुझा हुआ

महेश चंद्र नक़्श

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लौ दे उठा चराग़-ए-तमन्ना बुझा हुआ
गुज़रा ये आज कौन इधर देखता हुआ

ये हादसात भी तो गुज़रने ज़रूर थे
ऐ इश्क़ क्यूँ उदास है जो कुछ हुआ हुआ

वो रंग क्या हुए वो बहारें किधर गईं
ऐ हम-सफ़ीर सारा चमन है लुटा हुआ

यूँ आज बे-क़रार है दुनिया-ए-आरज़ू
जिस तरह तिलमिलाए कोई दिल दुखा हुआ

क्यूँ आज बज़्म-ए-ज़ीस्त में बे-कैफ़ियाँ सी हैं
ऐ हुस्न तेरी मस्त-निगाही को क्या हुआ

गिर्दाब-ए-ग़म है और मिरी कश्ती-ए-उमीद
फिर बहर-ए-ज़िंदगी में है तूफ़ाँ उठा हुआ

अपना पता न जादा-ए-मंज़िल की कुछ ख़बर
ख़ुद मिट गया हूँ 'नक़्श' उन्हें ढूँढता हुआ