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लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे | शाही शायरी
lamhe uljhan ke qarib aa pahunche

ग़ज़ल

लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे

नुशूर वाहिदी

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लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे
साए रहज़न के क़रीब आ पहुँचे

आँसुओं से ही बुझा ले नादाँ
शोले दामन के क़रीब आ पहुँचे

कौन मुजरिम को बचा सकता है
हाथ दामन के क़रीब आ पहुँचे

शीशा-ओ-मय जो कभी रक़्स में थे
संग-ओ-आहन के क़रीब आ पहुँचे

अब तो अपनों पे भरोसा न रहा
दोस्त दुश्मन के क़रीब आ पहुँचे

शोर सुन कर मिरी रुस्वाई का
वो भी चिलमन के क़रीब आ पहुँचे

हम रिवायात को पिघला के 'नुशूर'
इक नए फ़न के क़रीब आ पहुँचे