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लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं | शाही शायरी
lamha lamha bikhar raha hun main

ग़ज़ल

लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं

राम अवतार गुप्ता मुज़्तर

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लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ मैं
अपनी तकमील कर रहा हूँ मैं

ख़ूब से ख़ूब-तर है रू-ए-हयात
नए सिंघार कर रहा हूँ मैं

खुलते जाते हैं ज़ेहन के औराक़
तजरबों से गुज़र रहा हूँ मैं

तेरा होना न मान कर गोया
तुझ को तस्लीम कर रहा हूँ मैं

ख़ुद से ना-आश्ना सही लेकिन
तुझ से कब बे-ख़बर रहा हूँ मैं

महव ऐसा हूँ ख़ुद-परस्ती में
गोया तुझ से मुकर रहा हूँ मैं