EN اردو
लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी | शाही शायरी
lahuluhan samundar bhi dekhna hai abhi

ग़ज़ल

लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी

वाजिद क़ुरैशी

;

लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी
बुरीदा हल्क़ पे ख़ंजर भी देखना है अभी

अभी से दश्त-ए-बला से फ़राग़तें कैसी
बुलंद होता हुआ सर भी देखना है अभी

मुसालहत कहाँ होगी सिपाह-ए-शाम के साथ
ज़बाँ की नोक पे ख़ंजर भी देखना है अभी

नमीदा चश्म-ए-मसाफ़त की इंतिहा भी नहीं
उदास नस्ल को ज़द पर भी देखना है अभी

तुम्हारे ख़्वाब मिरी उँगलियों से बाहर हैं
तुम्हारे ख़्वाब को छूकर भी देखना है अभी