लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी
बुरीदा हल्क़ पे ख़ंजर भी देखना है अभी
अभी से दश्त-ए-बला से फ़राग़तें कैसी
बुलंद होता हुआ सर भी देखना है अभी
मुसालहत कहाँ होगी सिपाह-ए-शाम के साथ
ज़बाँ की नोक पे ख़ंजर भी देखना है अभी
नमीदा चश्म-ए-मसाफ़त की इंतिहा भी नहीं
उदास नस्ल को ज़द पर भी देखना है अभी
तुम्हारे ख़्वाब मिरी उँगलियों से बाहर हैं
तुम्हारे ख़्वाब को छूकर भी देखना है अभी
ग़ज़ल
लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी
वाजिद क़ुरैशी