लहू टपका किसी की आरज़ू से
हमारी आरज़ू टपकी लहू से
ये है किस का सोयम पूछा अदू से
कि दम है नाक में फूलों की बू से
वो बच्चा परवरिश करती है उल्फ़त
जो पैकाँ पोरवे की तरह चूसे
ये टूटेगी हवा-ए-गुल से वाइज़
मिरी तौबा को क्या निस्बत वुज़ू से
उसे कहते हैं कुमरी तौक़-ए-उल्फ़त
छुरी लिपटी हुई है याँ गुलो से
ये तासीर-ए-मोहब्बत है कि टपका
हमारा ख़ूँ तुम्हारी गुफ़्तुगू से
वो हैं क्यूँ हुस्न के पर्दा पे नाज़ाँ
ये सीखा है हमारी गुफ़्तुगू से
किया है दामन-ए-महशर को अफ़्शाँ
उड़े छींटे ये किस किस के लहू से
सुना है जाम था जमशेद के पास
अरे साक़ी फ़क़ीरों के कदू से
वो शर्मीली निगाहें कह रही हैं
हटा दो अक्स को भी रू-ब-रू से
लब-ए-गुल-रंग पर है ख़ाल-ए-मुश्कीं
मगस और फूल की पत्ती को चूसे
'बयाँ' ख़ौफ़-ए-गुनह से मर चुके थे
मगर जाँ आ गई ला-तक़्नतू से
ग़ज़ल
लहू टपका किसी की आरज़ू से
बयान मेरठी