लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
देखते देखते हाथों से निकल जाना है
दोपहर वो है कि होती नज़र आती ही नहीं
दिन हमारा तो बहुत पहले ही ढल जाना है
जी हमारा भी यहाँ अब नहीं लगता इतना
आज अगर रोक लिए जाएँ तो कल जाना है
दिल में खिलता हुआ इक आख़िरी ख़्वाहिश का ये फूल
जाते जाते इसे ख़ुद मैं ने मसल जाना है
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
एक दिन हम ने इसी आग में जल जाना है
चलती रुकती हुई ये हुस्न भी है एक हवा
मौसम-ए-इश्क़ भी इक रोज़ बदल जाना है
जैसे घुट्टी में कोई ख़ौफ़ पड़ा हो इस की
बात-बे-बात ही इस दिल ने दहल जाना है
और तो होनी है क्या अपनी वसूली उस से
मुँह पे कालक ये मुलाक़ात की मल जाना है
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
और वो खेंचा हुआ तीर भी चल जाना है
ग़ज़ल
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
ज़फ़र इक़बाल