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लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं | शाही शायरी
lahr ka KHwab ho ke dekhte hain

ग़ज़ल

लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं

अभिषेक शुक्ला

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लहर का ख़्वाब हो के देखते हैं
चल तह-ए-आब हो के देखते हैं

उस पे इतना यक़ीन है हम को
उस को बेताब हो के देखते हैं

रात को रात हो के जाना था
ख़्वाब को ख़्वाब हो के देखते हैं

अपनी अरज़ानियों के सदक़े हम
ख़ुद को नायाब हो के देखते हैं

साहिलों की नज़र में आना है
फिर तो ग़र्क़ाब हो के देखते हैं

वो जो पायाब कह रहा था हमें
उस को सैलाब हो के देखते हैं