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लग़्ज़िशों से मावरा तू भी नहीं मैं भी नहीं | शाही शायरी
laghzishon se mawara tu bhi nahin main bhi nahin

ग़ज़ल

लग़्ज़िशों से मावरा तू भी नहीं मैं भी नहीं

सय्यद अारिफ़

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लग़्ज़िशों से मावरा तू भी नहीं मैं भी नहीं
दोनों इंसाँ हैं ख़ुदा तू भी नहीं मैं भी नहीं

तू मुझे और मैं तुझे इल्ज़ाम देता हूँ मगर
अपने अंदर झाँकता तू भी नहीं मैं भी नहीं

मस्लहत ने कर दिया दोनों में पैदा इख़्तिलाफ़
वर्ना फ़ितरत का बुरा तू भी नहीं मैं भी नहीं

चाहते दोनों बहुत इक दूसरे को हैं मगर
ये हक़ीक़त मानता तू भी नहीं मैं भी नहीं

जुर्म की नौइय्यतों में कुछ तफ़ावुत हो तो हो
दर-हक़ीक़त पारसा तू भी नहीं मैं भी नहीं

रात भी वीराँ फ़सील-ए-शहर भी टूटी हुई
और सितम ये जागता तू भी नहीं मैं भी नहीं

जान-ए-'आरिफ़' तू भी ज़िद्दी था अना मुझ में भी थी
दोनों ख़ुद-सर थे झुका तू भी नहीं मैं भी नहीं