लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
हम लोग वहशी ख़ब्ती दीवाने बावले हैं
ये सेहर क्या किया है बालों की दरहमी ने
जो उस परी पर अपने बेगाने बावले हैं
जी झोंकता है कोई आतिश में नाहक़ अपना
जलते हैं शम्अ' पर जो परवाने बावले हैं
इस्मत का अपनी उस को जब आफी ग़म न होवे
लगते हैं हम जो नाहक़ ग़म खाने बावले हैं
उस मय का एक क़तरा सूराख़-ए-दिल करे है
भर भर जो हम पिएँ हैं पैमाने बावले हैं
गर्दिश से पुतलियों की सर-गश्ता है ज़माना
मस्ती से उस निगह की मय-ख़ाने बावले हैं
जाते हैं उस गली में लड़कों को साथ ले कर
म्याँ 'मुसहफ़ी' भी यारो क्या स्याने बावले हैं
ग़ज़ल
लगते हैं नित जो ख़ूबाँ शरमाने बावले हैं
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी