लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
नहीं मुझ को भाती तुम्हारी बनावट
पड़ा था उसे काम मेरी जबीं से
वो हंगामा भूली नहीं तेरी चौखट
ये तम्कीं है और लब हों जान-ए-तबस्सुम
न खुल जाए ऐ शोख़ तेरी बनावट
मैं धोके ही खाया किया ज़िंदगी में
क़यामत थी उस आश्ना की लगावट
ठिकाना तिरा फिर कहीं भी न होगा
न छूटे कभी 'वहशत' उस बुत की चौखट
ग़ज़ल
लगाओ न जब दिल तो फिर क्यूँ लगावट
वहशत रज़ा अली कलकत्वी