लगाएँ आग ही दिल में कि कुछ उजाला हो
किसी बहाने तो इस घर का बोल-बाला हो
नुमूद-ए-सुब्ह को कैसे करे जहाँ तस्लीम
कोई किरन हो कहीं नाम को उजाला हो
न तुम मिले न ये दुनिया-ए-ग़म ही रास आई
तुम ही बताओ कि इस ग़म का क्या इज़ाला हो
अजब अजब सी हैं अफ़्वाहें गर्म ज़िंदाँ में
अजब नहीं कि इसी शब यहाँ उजाला हो
फिर उस की बात का कैसे यक़ीन आ जाए
वो जिस की बात का अंदाज़ ही निराला हो
कशाँ कशाँ ही चलो ये रविश ही बेहतर है
कहीं न ज़िक्र हो अपना न कुछ हवाला हो
ग़ज़ल
लगाएँ आग ही दिल में कि कुछ उजाला हो
वजद चुगताई