लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ
हमारे हाथों ने जब फूल से बदन को छुआ
तमाम जिस्म में आसूदगी सी फैल गई
तिरे दहन ने कभी जब मिरे दहन को छुआ
सिमट के आ गई काग़ज़ पे सूरत-ए-अशआर
हमारी फ़िक्र ने जब भी किसी घुटन को छुआ
कई मक़ाम पे दोनों मिले ज़रूर मगर
किशन ने राधा को राधा ने कब किशन को छुआ
लिपट के पहुँचा मैं जब नेकियों की ख़ुशबू में
लहद की मिट्टी ने डरते हुए कफ़न को छुआ
कभी न हो सकी इज़हार-ए-इश्क़ की जुरअत
ये और बात कई सूरतों ने मन को छुआ
हम अपनी जान भी कर देंगे 'फ़ैज़' उस पे निसार
अगर किसी ने कभी अज़मत-ए-वतन को छुआ

ग़ज़ल
लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ
फ़ैज़ ख़लीलाबादी