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लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ | शाही शायरी
laga ki jaise kisi kanpte hiran ko chhua

ग़ज़ल

लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

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लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ
हमारे हाथों ने जब फूल से बदन को छुआ

तमाम जिस्म में आसूदगी सी फैल गई
तिरे दहन ने कभी जब मिरे दहन को छुआ

सिमट के आ गई काग़ज़ पे सूरत-ए-अशआर
हमारी फ़िक्र ने जब भी किसी घुटन को छुआ

कई मक़ाम पे दोनों मिले ज़रूर मगर
किशन ने राधा को राधा ने कब किशन को छुआ

लिपट के पहुँचा मैं जब नेकियों की ख़ुशबू में
लहद की मिट्टी ने डरते हुए कफ़न को छुआ

कभी न हो सकी इज़हार-ए-इश्क़ की जुरअत
ये और बात कई सूरतों ने मन को छुआ

हम अपनी जान भी कर देंगे 'फ़ैज़' उस पे निसार
अगर किसी ने कभी अज़मत-ए-वतन को छुआ