लफ़्ज़ तो मिलते नहीं इज़हार-ए-महसूसात को
अब वो समझें या न समझें मेरे दिल की बात को
दर-हक़ीक़त तूर पर मूसा को सूझी ही नहीं
वर्ना आँखें जज़्ब कर लेतीं तजल्लियात को
मेरी आगे से हटा लो या तो ये मुबहम किताब
या पलटने दो मुझे औराक़-ए-मौजूदात को
हाए मत पूछो मरीज़-ए-ग़म की कैफ़ीयात-ए-कर्ब
नींद क्या ग़फ़लत सी हो जाती ही पिछली रात को
मेरी आहों में ब-क़ौल उन के अगर ताक़त नहीं
चर्ख़ से फिर क्यूँ सितारे टूटते हैं रात को
पहले तो दिल में ख़ुदा जाने किधर से आ छुपे
फिर सितम ये है उभारा मेरे महसूसात को
तक रहा है फिर कोई हसरत से सू-ए-आसमाँ
फिर कहीं जज़्बा न आ जाए तजल्लियात को
मुँह अँधेरे जब जहाँ सोता है मद-होशी की नींद
मैं सुना करता हूँ साज़-ए-रूह के नग़्मात को
चाँदनी हो या अँधेरी मुझ को 'तालिब' वास्ता
मैं तो आफ़त ही समझता हूँ हमेशा रात को

ग़ज़ल
लफ़्ज़ तो मिलते नहीं इज़हार-ए-महसूसात को
तालिब बाग़पती