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लफ़्ज़ से जब न उठा बार-ए-ख़याल | शाही शायरी
lafz se jab na uTha bar-e-KHayal

ग़ज़ल

लफ़्ज़ से जब न उठा बार-ए-ख़याल

हफ़ीज़ ताईब

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लफ़्ज़ से जब न उठा बार-ए-ख़याल
कैसे कैसे किया इज़हार-ए-ख़याल

दिल में जब दर्द की क़िंदील जली
तमतमाने लगे रुख़्सार-ए-ख़याल

रूह के ज़ख़्म न मुरझाएँ कभी
ता-अबद महके चमनज़ार-ए-ख़याल

ग़म पे मौक़ूफ़ है तासीर-ए-बयाँ
ग़म से है रौनक़-ए-बाज़ार-ए-ख़याल

राकिब-ए-फ़हम है बे-बस 'ताइब'
और मुँह-ज़ोर है रहवार-ए-ख़याल