लड़ के फिर आए डर गए शायद
बिगड़े थे कुछ सँवर गए शायद
सब परेशाँ दिली में शब गुज़री
बाल उस के बिखर गए शायद
कुछ ख़बर होती तो न होती ख़बर
सूफि़याँ बे-ख़बर गए शायद
हैं मकान ओ सरा ओ जा ख़ाली
यार सब कूच कर गए शायद
आँख आईना-रू छुपाते हैं
दिल को ले कर मुकर गए शायद
लोहू आँखों में अब नहीं आता
ज़ख़्म अब दिल के भर गए शायद
अब कहीं जंगलों में मिलते नहीं
हज़रत-ए-ख़िज़्र मर गए शायद
बे-कली भी क़फ़स में है दुश्वार
काम से बाल ओ पर गए शायद
शोर बाज़ार से नहीं उठता
रात को 'मीर' घर गए शायद

ग़ज़ल
लड़ के फिर आए डर गए शायद
मीर तक़ी मीर