EN اردو
लबों पे शिकवा-ए-अय्याम भी नहीं होता | शाही शायरी
labon pe shikwa-e-ayyam bhi nahin hota

ग़ज़ल

लबों पे शिकवा-ए-अय्याम भी नहीं होता

वक़ार सहर

;

लबों पे शिकवा-ए-अय्याम भी नहीं होता
ज़बाँ पे अब तो तिरा नाम भी नहीं होता

कभी कभी उसे सोचूँ तो सोच लेता हूँ
कभी-कभार ये इक काम भी नहीं होता

ये मय-कदा है नहीं मय-कशो ये धोका है
यहाँ तो नश्शा तह-ए-जाम भी नहीं होता

नहीं ये दर्द नहीं ये ज़रूर है कुछ और
कि उस में तो मुझे आराम भी नहीं होता

वो अजनबी सा रवय्या वो दिल-शिकन अंदाज़
जब उन के होंटों पे इल्ज़ाम भी नहीं होता

तिरे बग़ैर मसाफ़त में पुल-सिरात हुआ
वो रहगुज़ार जो दो गाम भी नहीं होता

'सहर' तुम उस से मुलाक़ात कैसे करते हो
वो शख़्स अब तो लब-ए-बाम भी नहीं होता