लबों पे शिकवा-ए-अय्याम भी नहीं होता
ज़बाँ पे अब तो तिरा नाम भी नहीं होता
कभी कभी उसे सोचूँ तो सोच लेता हूँ
कभी-कभार ये इक काम भी नहीं होता
ये मय-कदा है नहीं मय-कशो ये धोका है
यहाँ तो नश्शा तह-ए-जाम भी नहीं होता
नहीं ये दर्द नहीं ये ज़रूर है कुछ और
कि उस में तो मुझे आराम भी नहीं होता
वो अजनबी सा रवय्या वो दिल-शिकन अंदाज़
जब उन के होंटों पे इल्ज़ाम भी नहीं होता
तिरे बग़ैर मसाफ़त में पुल-सिरात हुआ
वो रहगुज़ार जो दो गाम भी नहीं होता
'सहर' तुम उस से मुलाक़ात कैसे करते हो
वो शख़्स अब तो लब-ए-बाम भी नहीं होता
ग़ज़ल
लबों पे शिकवा-ए-अय्याम भी नहीं होता
वक़ार सहर