लबों पे है जो तबस्सुम तो आँख पुर-नम है
शुऊर-ए-ग़म का ये आलम अजीब आलम है
गुज़र न जादा-ए-इमकाँ से बे-ख़याली में
यहीं कहीं तिरी जन्नत यहीं जहन्नम है
भटक रहा है दिल इमरोज़ के अंधेरों में
निशान-ए-मंज़िल-ए-फ़र्दा बहुत ही मुबहम है
बढ़ा दिया है असीरों की ख़स्ता-हाली ने
क़फ़स से ता-ब-चमन वर्ना फ़ासला कम है
अभी नहीं किसी आलम में दिल ठहरने का
अभी नज़र में तिरी अंजुमन का आलम है
कहाँ ये ज़िंदगी-ए-हर्ज़ा-गर्द ले आई
न रहगुज़ार-ए-तरब है न जादा-ए-ग़म है
कुछ ऐसे हम ने तिरे ग़म की परवरिश की है
कि जैसे मक़्सद-ए-हस्ती फ़क़त तिरा ग़म है
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ग़ज़ल
लबों पे है जो तबस्सुम तो आँख पुर-नम है
मख़मूर सईदी