लब-ए-तलब भी न फिर माइल-ए-सवाल हुआ
कि जब तक़द्दुस-ए-कश्कोल पाएमाल हुआ
अजीब क़हत-ए-ख़याल-ओ-ख़बर से गुज़रे हम
किसी ने हाल भी पूछा तो जी बहाल हुआ
मिले ब-सई-ए-रफ़ू और उठे गरेबाँ-चाक
ये मशवरा हुआ लोगो कि इश्तिआल हुआ
वो जाल फैले हवा में कि पर-कुशाओं को
नशेमनों की तरफ़ लौटना मुहाल हुआ
ये हश्र उस का है सूरज कहा गया जिस को
कभी सुना किसी ज़र्रे को भी ज़वाल हुआ
कुछ ऐसे हादसे भी थे जो ज़ख़्म-ए-वक़्त के थे
सो किस से वक़्त के ज़ख़्मों का इंदिमाल हुआ
अजब वो शहर-ए-सितमगर था छोड़ कर जिस को
बहुत ख़ुशी हुई और फिर बहुत मलाल हुआ
वो इक मुसाफ़िर-ए-हक़-कोश था सो उस का ये अज्र
सदाक़तों के सफ़र ही में इंतिक़ाल हुआ
फिरीं कुछ ऐसी शब-अफ़रोज़ियाँ निगाहों में
चराग़-ए-शाम जला और मैं निढाल हुआ
ग़ज़ल
लब-ए-तलब भी न फिर माइल-ए-सवाल हुआ
महशर बदायुनी

