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लब-ए-साहिल समुंदर की फ़रावानी से मर जाऊँ | शाही शायरी
lab-e-sahil samundar ki farawani se mar jaun

ग़ज़ल

लब-ए-साहिल समुंदर की फ़रावानी से मर जाऊँ

महशर आफ़रीदी

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लब-ए-साहिल समुंदर की फ़रावानी से मर जाऊँ
मुझे वो प्यास है शायद कि मैं पानी से मर जाऊँ

तुम उस को देख कर छू कर भी ज़िंदा लौट आए हो
मैं उस को ख़्वाब में देखूँ तो हैरानी से मर जाऊँ

मैं इतना सख़्त-जाँ हूँ दम बड़ी मुश्किल से निकलेगा
ज़रा तकलीफ़ बढ़ जाए तो आसानी से मर जाऊँ

ग़नीमत है परिंदे मेरी तन्हाई समझते हैं
अगर ये भी न हों तो घर के वीराने से मर जाऊँ

नज़र-अंदाज़ कर मुझ को ज़रा सा खुल के जीने दे
कहीं ऐसा न हो तेरी निगहबानी से मर जाऊँ

बहुत से शेर मुझ से ख़ून थुकवाते हैं आमद पर
बहुत मुमकिन है मैं एक दिन ग़ज़ल-ख़्वानी से मर जाऊँ

तिरी नज़रों से गिर कर आज भी ज़िंदा हूँ मैं किया ख़ूब
तक़ाज़ा है ये ग़ैरत का पशेमानी से मर जाऊँ