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लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता | शाही शायरी
lab-e-rangin se agar tu guhar-afshan hota

ग़ज़ल

लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

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लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
लखनऊ लालों के मादन से बदख़्शाँ होता

ऐ परी तू वो परी है कि तिरी देख के शक्ल
हर फ़रिश्ता की तमन्ना है कि इंसाँ होता

रह गया पर्दा मिरा वर्ना तिरे जाते ही
न ये दामन नज़र आता न गरेबाँ होता

आ निकलता कभी ज़ाहिद जो तिरी महफ़िल में
हाथ में शीशा-ए-मय ताक़ पे क़ुरआँ होता

ख़ैर गुज़री जो खुले बालों को उस ने बाँधा
वर्ना मजमूआ अनासिर का परेशाँ होता

मर गया ज़ुल्फ़ की मैं पेच उठा कर ऐ 'बर्क़'
क्यूँ न अफ़्साना मिरा ख़्वाब-ए-परेशाँ होता