लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
लखनऊ लालों के मादन से बदख़्शाँ होता
ऐ परी तू वो परी है कि तिरी देख के शक्ल
हर फ़रिश्ता की तमन्ना है कि इंसाँ होता
रह गया पर्दा मिरा वर्ना तिरे जाते ही
न ये दामन नज़र आता न गरेबाँ होता
आ निकलता कभी ज़ाहिद जो तिरी महफ़िल में
हाथ में शीशा-ए-मय ताक़ पे क़ुरआँ होता
ख़ैर गुज़री जो खुले बालों को उस ने बाँधा
वर्ना मजमूआ अनासिर का परेशाँ होता
मर गया ज़ुल्फ़ की मैं पेच उठा कर ऐ 'बर्क़'
क्यूँ न अफ़्साना मिरा ख़्वाब-ए-परेशाँ होता
ग़ज़ल
लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़