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लब-ए-ख़मोश मुझे आह आह करने दे | शाही शायरी
lab-e-KHamosh mujhe aah aah karne de

ग़ज़ल

लब-ए-ख़मोश मुझे आह आह करने दे

तालिब बाग़पती

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लब-ए-ख़मोश मुझे आह आह करने दे
गुनाह इश्क़ सही ये गुनाह करने दे

तू कामयाब निगाहों को शर्मसार न कर
इसी तरह सितम-ए-बे-पनाह करने दे

अभी से दर्स-ए-हक़ीक़त ज़रा ठहर वाइ'ज़
ख़िरद को और ख़राब-ए-निगाह करने दे

न रात-दिन की ख़बर है न आज-कल का पता
किसी क़रार-शिकन से निबाह करने दे

नई कमाँ है नई मश्क़ है न रोक निगाह
हरीम-ए-दिल को मुकम्मल तबाह करने दे

कहाँ तिरी शब-ए-गेसू कहाँ मिरी शब-ए-हिज्र
मुक़ाबला भी नसीब-ए-सियाह करने दे

न रिंद हूँ न शरीअ'त से ज़िद मुझे 'तालिब'
कोई बला से करे इश्तिबाह करने दे