लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
इक न इक गुल का दिल पे दाग़ रहा
नाज़-ए-बे-बजा उठाइए किस के
अब न वो दिल न वो दिमाग़ रहा
कब मिटा इश्क़ का निशाँ दिल से
ज़ख़्म अच्छा हुआ तो दाग़ रहा
इक नज़र जिस ने तुझ को देख लिया
उम्र भर दरपै-ए-सुराग़ रहा
याद में किस की ज़मज़मे बुलबुल
मुद्दतों हम-नवा-ए-ज़ाग़ रहा
कभी नज़्ज़ारा-ए-चमन न किया
अपने दाग़ों से बाग़ बाग़ रहा
दिल को अफ़्सुर्दगी सी है ऐ 'रिंद'
सैर-ए-गुल का किसे दिमाग़ रहा
ग़ज़ल
लाला-रूयों से कब फ़राग़ रहा
रिन्द लखनवी