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लाला-ओ-गुल का लहू भी राएगाँ होने लगा | शाही शायरी
lala-o-gul ka lahu bhi raegan hone laga

ग़ज़ल

लाला-ओ-गुल का लहू भी राएगाँ होने लगा

मतरब निज़ामी

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लाला-ओ-गुल का लहू भी राएगाँ होने लगा
पंखुड़ी पर क़तरा-ए-शबनम गराँ होने लगा

रफ़्ता रफ़्ता आँख से आँसू रवाँ होने लगा
वक़्त के ख़ाके में नक़्श-ए-जावेदाँ होने लगा

इस तरह तहरीर के अल्फ़ाज़ लौ देने लगे
देखते ही देखते काग़ज़ धुआँ होने लगा

सिलसिले तहरीर के मंज़िल-ब-मंज़िल तय हुए
लफ़्ज़ जो मैं ने लिखा वो कारवाँ होने लगा

जब से नज़रें महव-ए-तज़ईन-ए-नज़ारा हो गईं
आइना इज्ज़-ए-नुमाइश की ज़बाँ होने लगा

क्या ख़िज़ाँ ने रंग-ओ-निकहत पर कमंदें डाल दीं
क्यूँ लब-ए-गुल का तबस्सुम भी फ़ुग़ाँ होने लगा

रौशनी की सल्तनत भी गुल-बदामाँ हो गई
एक शो'ला मोम पर जब हुक्मराँ होने लगा