लाला-ओ-गुल का लहू भी राएगाँ होने लगा
पंखुड़ी पर क़तरा-ए-शबनम गराँ होने लगा
रफ़्ता रफ़्ता आँख से आँसू रवाँ होने लगा
वक़्त के ख़ाके में नक़्श-ए-जावेदाँ होने लगा
इस तरह तहरीर के अल्फ़ाज़ लौ देने लगे
देखते ही देखते काग़ज़ धुआँ होने लगा
सिलसिले तहरीर के मंज़िल-ब-मंज़िल तय हुए
लफ़्ज़ जो मैं ने लिखा वो कारवाँ होने लगा
जब से नज़रें महव-ए-तज़ईन-ए-नज़ारा हो गईं
आइना इज्ज़-ए-नुमाइश की ज़बाँ होने लगा
क्या ख़िज़ाँ ने रंग-ओ-निकहत पर कमंदें डाल दीं
क्यूँ लब-ए-गुल का तबस्सुम भी फ़ुग़ाँ होने लगा
रौशनी की सल्तनत भी गुल-बदामाँ हो गई
एक शो'ला मोम पर जब हुक्मराँ होने लगा
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ग़ज़ल
लाला-ओ-गुल का लहू भी राएगाँ होने लगा
मतरब निज़ामी