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लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं | शाही शायरी
laeq wafa ke KHalq o saza-e-jafa hun main

ग़ज़ल

लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं

क़ाएम चाँदपुरी

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लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
जितने हैं याँ सो नेक हैं जो कुछ बुरा हूँ मैं

जा है कि हों ये लोग तिरे पास उस जगह
कब क़ाबिल-ए-इनायत-ओ-मेहर-ओ-वफ़ा हूँ मैं

मुझ को बुताँ की दीद से मत मनअ' कर कि शैख़
क्या जाने इस लिबास में क्या देखता हूँ मैं

आगे मिरे न ग़ैर से गो तुम ने बात की
सरकार की नज़र को तो पहचानता हूँ मैं

बेगाना जिन से मिल के तू प्यारे हुआ है याँ
उन सब में इक बड़ा तो तिरा आश्ना हूँ मैं

पूछो हो मुझ से तुम कि पिएगा भी तू शराब
ऐसा कहाँ का शैख़ हूँ या पारसा हूँ मैं

जौर-ए-सिपह्र ओ दूरी-ए-याराँ ओ रू-ए-ग़ैर
जो कुछ न देखना था सो अब देखता हूँ मैं

आईना ओ ग़ुबार में जूँ यक-दिगर है रब्त
जो पुर-कदर हैं उन से ज़ियादा सफ़ा हूँ मैं

'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
इस मर्दुमी के शोर पे किस काम का हूँ मैं