लाएक़-ए-दस्तार आख़िर कोई सर होना ही था
इक न इक दिन तो ये क़िस्सा मुख़्तसर होना ही था
देख कर अश्क-ए-नदामत आ गया रहमत को जोश
अब तो मेरी हर ख़ता को दर-गुज़र होना ही था
चश्म पुर-नम थी न मेरे होंटों पर शिकवा-गिला
मेरे ग़म से हर किसी को बे-ख़बर होना ही था
इंक़िलाब-ए-वक़्त का परचम था मेरे हाथ में
ज़ीनत-ए-दार-ओ-रसन तो मेरा सर होना ही था
दास्ताँ मेरी ज़बाँ से सुन रहे थे अपनी लोग
मेरा हर हमला यक़ीनन कारगर होना ही था
अपनी बे-नूरी पे नर्गिस कब तलक रोती भला
इक-न-इक दिन तो चमन में दीदा वर होना ही था
सोहबत-ए-अहल-ए-हुनर में उम्र गुज़री है तमाम
फ़िक्र-ए-'माहिर' को कभी तो मो'तबर होना ही था
ग़ज़ल
लाएक़-ए-दस्तार आख़िर कोई सर होना ही था
माहिर सिवहारवी