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क्यूँकर गली में इस की मैं ऐ हम-रहाँ रहूँ | शाही शायरी
kyunkar gali mein isko main ai ham-rahan rahun

ग़ज़ल

क्यूँकर गली में इस की मैं ऐ हम-रहाँ रहूँ

जुरअत क़लंदर बख़्श

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क्यूँकर गली में इस की मैं ऐ हम-रहाँ रहूँ
इस आरज़ू-ए-दिल पे है वाँ तो न ''हाँ'' न ''हूँ''

पाता हूँ मैं जहाँ उसे होते हैं वाँ मुख़िल
हैराँ हूँ अब कि राज़-ए-दिल उस से कहाँ कहूँ

बस बंद कर ज़बाँ कि सुने ऐ ज़बाँ-दराज़
कब तक तिरी ज़बाँ से कोई कम ज़बाँ-ज़ुबूँ

शहर-ए-तरब से शक्ल-ए-गुनहगार दिल मिरा
आख़िर हुआ ब-दोस्ती-ए-दिल-बराँ बरूँ

ज़ाहिर है क़त्ल-ए-आशिक़-ए-मुज़्तर कि ख़ूँ से सुर्ख़
है क़स्र-ए-ख़ाना का तिरे ऐ दिल-सिताँ सुतूँ

क़ाइल ब-दिल हूँ तब अमल-ए-हुब का मैं कि जब
उस शोख़ से ब-जद्द-ओ-कद-ए-आमिलाँ मिलूँ

बे-यार जब लगे मुझे ज़िंदाँ से घर बतर
बर्बाद क्यूँकि इश्क़ में फिर ख़ानदाँ न दूँ

क्या ख़ाक आब-दारी-ए-तेग़ उस से हो कि है
वो चश्म-ए-सुर्मा-सा जो ब-संग-ए-फ़साँ फ़ुसूँ

'जुरअत' ज़ि-बस हैं अहल-ए-जहाँ हर्फ़-ए-ना-शुनू
दाख़िल सुख़न मैं क्यूँकि ब-गोश-ए-गिराँ करूँ