क्यूँ वस्ल में भी आँख मिलाई नहीं जाती 
वो फ़र्क़ दिलों का वो जुदाई नहीं जाती 
क्या धूम भी नालों से मचाई नहीं जाती 
सोती हुई तक़दीर जगाई नहीं जाती 
कुछ शिकवा न करते न बिगड़ता वो शब-ए-वस्ल 
अब हम से कोई बात बनाई नहीं जाती 
देखो तो ज़रा ख़ाक में हम मिलते हैं क्यूँकर 
ये नीची निगह अब भी उठाई नहीं जाती 
कहती है शब-ए-हिज्र बहुत ज़िंदा रहोगे 
माँगा करो तुम मौत अभी आई नहीं जाती 
वो हम से मुकद्दर हैं तो हम उन से मुकद्दर 
कह देते हैं साफ़ अपनी सफ़ाई नहीं जाती 
हम सुल्ह भी कर लें तो चली जाती है उन में 
बाहम दिल ओ दिलबर की लड़ाई नहीं जाती 
ख़ुद दिल में चले आओगे जब क़स्द करोगे 
ये राह बताने से बताई नहीं जाती 
छुपती है 'जलाल' आँखों में कब हसरत-ए-दीदार 
सौ पर्दे अगर हों तो छुपाई नहीं जाती
        ग़ज़ल
क्यूँ वस्ल में भी आँख मिलाई नहीं जाती
जलाल लखनवी

