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क्यूँ तिरे गेसू कूँ गेसू बोलनाँ | शाही शायरी
kyun tere gesu kun gesu bolnan

ग़ज़ल

क्यूँ तिरे गेसू कूँ गेसू बोलनाँ

सिराज औरंगाबादी

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क्यूँ तिरे गेसू कूँ गेसू बोलनाँ
दिल में आता है कि शब्बू बोलनाँ

पेच खा कर दिल मिरा चकरत में है
ज़ुल्फ़ कूँ तेरी चकाबू बोलनाँ

भूल गई आहू कूँ अपनी चौकड़ी
तुझ निगह कूँ दाम-ए-आहू बोलनाँ

या फ़लक की आरसी में है हिलाल
या किसी का अक्स-ए-अबरू बोलनाँ

सीख गई गुलशन में तेरे क़द सती
सर्व पर क़ुमरी ने कू कू बोलनाँ

कान में है तेरे मोती आब-दार
या किसी आशिक़ का आँसू बोलनाँ

सामने उस चेहरा-ए-गुलफ़ाम के
हर गुल-ए-ख़ुशबू कूँ ख़ुद-रौ बोलनाँ

हुस्न के लश्कर के रावत हैं दो-चश्म
ज़ुल्फ़-ओ-लब शब-ख़ूँ का क़ाबू बोलनाँ

अब चराग़-ए-अक़्ल गुल करनी 'सिराज'
सोज़-ए-दिल सें एक याहू बोलनाँ